भारतीय परम्परा के अनुसार आयुर्वेद के सिद्धाँतों
के अनुसार पथ्य का अपना महत्व रहा है. चूँकि छ्पाई का विज्ञान बहुत विकसित नहीं था
इसलिये पारम्परिक ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपने के लिये कहावतों और
कविताओं का सहारा सफलतापूर्वक लिया गया. एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कविता जो हमारे पिता
ने हमें लिख के दी, आप के जानने मानने के लिये प्रस्तुत है. इस कविता में, हिन्दी
के महीनों के अनुसार, किस माह में क्या नहीं खाना चाहिये इस बात की व्याख्या की गयी
है. कविता में एक ही स्थान पर आहार के अतिरिक्त बात कही गयी है स्थान पर कहा गया
है-जेठ में पंथ, इसका अर्थ है जेठ के महीने में यात्रा नहीं करना चाहिये.कहीं-कहीं दो बातें कही गईं हैं क्योंकि अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग रूप में यह कहावत कही जाती है.
चैते गुड़, बैसाखे तेल
जेठ में पंथ/राई, असाढ़
में बेल
सावन साग/नींबू, न भादौ
दही
क्वाँर करेला,
कर्तिक मही.
अगहन ज़ीरा, पूस में
धना
माघ मसुरिया, फागुन
चना.
जो जै चीज़ें जाई
बचाई,
उनके घरे वैद न जाई.
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